By Shri Kamal Kishor Rawat
मानव सभ्यता के उदगम स्थलों में एक है भारत। इसी भारत का एक अभिन्न अंग है छत्तीसगढ़ राज्य का दन्तेवाड़ा जिला। छत्तीसगढ़ क्षेत्र जिसे हम दक्षिण बस्तर मे नाम से जानते है, दन्तेवाड़ा जिला कहलाता है। यह एक नया जिला है जो बस्तर जिले का विभाजित कर बना है। जिस प्रकार नवजात षिषु अपने जीवन के प्रारंभिक काल में अपने भावी भविष्य का संकेत नहीं दे पाता है पर बाद में वह अपने अभिवावकों गुरूओं के बतायें ज्ञान के आधार पर अपने गौरवमय अतीत के द्वारा अतीत को पहचानने का प्रयास करता है तथा अतीत को नींव पर वर्तमान और भविष्य की इमारत खड़ी करता है ऐसी ही स्थिति में आज यह दन्तेवाड़ा जिला अपने-आप को पाता है। दन्तेवाड़ा का अतीत भी अत्यन्त गौरवषाली तथा समुन्नत है। अपने प्राकृतिक फूल पौधों से घिरा यह वन-प्रातर अपने भीतर अनंत इतिहास को संजोये हुए है, जिनमे कुछ तो प्रत्यक्ष रूप में दृष्यमान है कुछ धरती के गर्भ में समायें हुए है जिन्हें खोजकर्ता की तलाष है तथा कुछ तो सदा के लिए काल के गर्त में समा गये है। यद्यपि यह नल, गंग, नाग, तथा तथो चालुक्यों की धरती रहीं है इन वंषो के नाषो की यह राजधानी इसी जिले का बारसुर नामक स्थान में इनकी राजधानी रही है। पुराण प्रसिद्ध माँ दन्तेष्वरी इनकी अराध्या रही है। बस्तर (जगदलपुर) में अधिक समय तक इन नरेषों की राजधानी रहने के कारण दन्तेवाड़ा के पृथक अस्मिता से लोगों का अपरिचय स्वाभाविक ही है। अतः आज आवष्यकता इस बात की है कि दन्तेवाड़ा के अस्तित्व संस्कृति इसकी अस्मिता की पृथक तलाष हो। परन्तु यह तभी पूरी हो सकती है जब हम उसके ऐतिहासिक सांस्कृतिक पृष्टों को देखें। उसकी धरोहरों के पुरातात्विक अवषेषों को पहचान करें, कला कतियों के सौन्दर्य को उद्घारित करें तथा सम्मक रूप से इसके इतिहास का लेखन करें।
डॉ. हीरालाल शुक्ल के अनुसार यहाँ के द्रविड़ भाषी समूह उत्तर पष्चिम के सिन्धुघाटी निवासी प्राक् द्रविड़ों से ईसा पूर्व 1500 में अलग होकर बस्तर आये थें जिन्हें सस्कृत ग्रन्थों में नाग नाम से जाना जाता था। पुराणों में भी नाग जाति का नाम से आया है जिसे आर्योतर जाति के रूप में जाना जाता था। आर्यो का यहाँ आगमन लगभग 800 ई. पूर्व माना रहा था आर्य संस्कृति यहाँ 200 ई. पूर्व के आसपास सात वाहनों के समय सहज रूप विकसित हुई। रामायण काल तथा महाभारत काल में ही इस क्षेत्र की मुण्डा तथा द्रविड़ प्रजातियां आर्य संस्कृति में काफी कुछ मिल गई थी। 600 ई. पूर्व से 1324 ई. पूर्व तक यह आदिवासी गणतंत्र था। नल (350-760) तथा (760-1324) तक उत्पत्ति की दृष्टि से ये दोनों आर्योतर थे तथा धीरे-धीरे इनका आर्योकरण हुआ। आर्यो के साथ इनके रक्त संबंध बने तथा संस्कृतिगत दूरी कम हुई। इस क्षेत्र पर चालुक्य वंषी राजाओं ने 1328 से 1947 ई. तक शासन किया। दिकपाल देव का दन्तेवाड़ा अभिलेख ई. 1 एक्स-65, ई. 1 एक्स 11242 कहता है, सोमवंषी पांडव अर्जुन के संतान तुरूकान व र्हिस्तानापुर छाड़ि राजा भये है वंष यह काती प्रताव रूद्र नाम राजा भये। जै राजा के भाई अन्न्देव महाराजा भये। इस षिलालेख के आधार पर ये आर्य ठहरते है। आर टेम्पल ने लिखा है कि बस्तर के राजा अपने को राजपूत कहते है किन्तु वे गोंडो तथा राजपूतों के मिश्रित वंषज प्रतीत होते है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि राजवंष भी आर्य-द्रविड़ संस्कृति का मिश्रित रूप था तथा इनके कारण दन्तेवाड़ा क्षेत्र आर्य-द्रविड़ पोषित संस्कृत का प्रतीत बना। अब हम इस समन्वयात्मक परिप्रेक्ष्य में दन्तेवाड़ा जिले में उपस्थित ऐतिहासिक साक्ष्यों का अध्ययन करें। इस जिले के राजवंषों तथा सामान्य जनों ने अपने भक्ति के प्रतीकों के रूप अनेकानेक मंदिरो का निर्माण किया। हमारे यहाँ मंदिर निर्माण निर्माण को दो शैलियों भी प्रचलित हुई। एक थी उत्तर का हिन्दु शैली के मंदिर यथा खजराहों, भुनेष्वरी बोधगया आदि। दूसरी दक्षिण को हिन्दु दक्षिण को हिन्दु मंदिर शैल यथा मदुरै, श्रीरंगम, महाबलीपुरम, रामेष्वरम् आदि। दक्षिण के मंदिरों की एक विषुद्ध सारणी है जो उत्तर के मंदिरों में नहीं।
दन्तेवाड़ा जिले के मुख्यालय में स्थित है माँ दन्तेवाड़ा का पुराण प्रसिद्ध मंदिर। यहाँ की राजाओं की आराध्य दन्तेष्वरी देवी का मंदिर मान्यतानुसार सती के शरीर के बावन टुकड़ो में एक दांत के गिरने के कारण शक्ति पीठ के रूप में विकसित हुआ था। नागों के शासन काल में यह माणिकेष्वरी के रूप में पूजित थी। ऐसी मान्यता है कि चालुक्यों की दन्तेष्वरी माणिकेष्वरी का दूसरा रूप है। भंजदेव के अनुसार बारसुर से दन्तेष्वरी की प्रतिमा लाकर दन्तेवाड़ा में पूर्वजों द्वारा प्रतिष्ठित की गई थी पर इतिहासकार रसेल का कहना है कि दन्तेष्वरी की प्रतिमा पहले से ही स्थापित थी। वर्तमान दन्तेष्वरी मंदिर परिसर में दो मंदिर है माता दन्तेष्वरी का दूसरा उनकी छोटी बहन भानेष्वरी का मंदिर में प्रवेष करते ही हमें गरूड़ स्तंभ के दर्षन होते है। दन्तेष्वरी की मूर्ति पूर्वाभिमुख प्रतिष्ठिपित तो गरूड़ स्तंभ पष्चिमाभिमुख। गरूड़ दन्तेष्वरी के सामने प्रणम्भ मुद्रा में किस आदेष के लिए प्रतीक्षारत दिखाई पड़ता है। मंदिर चार खण्डो में पांच ष्विलिंग, दुर्गा, गणेष, ब्रहा, द्वारपाल आदि की मूर्तिया है। इनके ठीक बीचो-बीच पूर्वाभिमुख मुण्डमाताधारी भैरवी पूर्वाभिमुख विराजमान है। यह गरूड स्तंभ तथा दन्तेष्वरी के ठीक बीचों बीच प्रतीत होता है। इसके पाष्चात मुख्य मडप है जिसके किनारे में दो षिलालेख है, जो देवनागिरी लिपि में है। एक में दंतावला देवी जमति लिखा हुआ है। इससे यह प्रतीत होता है काकतीय (चाणक्य) के समय इनकी प्रसिध्दि दंतावला देवी के रूप में रही है। इस षिलालेख में अन्नमदेव से लेकर दिगपालदेव तक का उल्लेख मिलता है जो यह प्रमाणित करता है कि यह प्रस्तराभिलेख दिगपालदेव के समय का है। मुख्य मडप मे ही पार्वती लक्ष्मी, चिप्पा, भैरव-भरवी द्वार के दोनों तरफ द्वार पाल तथा गणेष का एक विषालकाय मूर्ति स्वभाविक रूप से हमारा ध्यान खींचता है। मुख्य मडप के बाद अंतरालयें है तथा गर्भगृह के प्रवेष द्वार पर ही द्वारपाल (पाषाणकृत) खडा है। यहां की मूर्तियों में से कुछ देखने पर साधनारत गंभीर मुद्रा में दिखाई पडती है। सबके अंत में आता है- गर्भगृह जिसमें दन्तेष्वरी की भव्य प्रतिमा है। अप्ठभुजी दुर्गा की यह प्रतिमा चिकने काले पत्थर की है। मूर्ति सौन्दर्य एवं षक्ति की आभा से युक्त है। मुकुट पर नरसिंह अवतार तथा हिरण्यकष्यंप वध के दृष्य है। आर्य-द्रविड संघर्ष को जितना नजदीक से दन्तेवाडा ने देखा है संभवना अन्य किसी ने नही। उत्तर के वैष्णव महावलेविया तथा दक्षिण के षैव मनावलविया के मध्य षक्ति आरसरा के लिए यह प्रसिध्द वह क्षेत्र बीच में पिस रहा था। तथा एक संतुलन की तुलना कर रहा है। दक्षिण बस्तर दन्तेवाडा जिले में स्थित बारसूर नलों नागों तथा चालक्यां की कुछ समय के लिए राजधानी रही है। यह मन्दिरों का षासन है। यह के प्रसिध्द उत्तर की खासकर उड़ीसा षैली के है पर दक्षिण की छाप लिए हुए है। मन्दिरों का यह नगर षिव मन्दिरों तथा षिव परिवार के मदिरों के लिए विख्यात है।
संक्षेप में दन्तेवाडा जिला-द्रविड संस्कृति सनातन धर्म के षैव षाक्त और वैष्णव मत के समन्वय का प्रतीक होता है। इसके बारे में विस्तार से चर्चा और षोध होना चाहिए। भविष्य के प्रति आषान्वित होते हुए मै यह कहना चाहूगॉ कि यहां के उज्जवल अतीत के खोज बढाया गया जिसका यह कदम भविष्य में जब इतिहास को परतें खोलेगा।
संदर्भ सूची :-
Dantewada Tourism, Dakshin Bastar Dantewada