By Shri Akshay Baghel
Clouds
बस्तर क्षेत्र में निवासरत आदिम समुदायों में प्रत्येक तीज त्यौहार हेतु अपने ईष्टदेव अथवा आदिपुरुषों के लिए विशेष विधान निश्चित है, जो इसे सांस्कृतिक धरोहर के रुप में अन्य क्षेत्रों से पृथक महत्त्व प्रदान करता है। कार्तिक मास में देशभर में मनाए जाने वाले दीपावली त्यौहार को बस्तर में दियारी तिहार अथवा दीवाड़ पण्डुम के रुप में मनाया जाता है, जिसमें प्रत्येक क्षेत्र में विभिन्न जनजातियों के द्वारा इस अवसर पर विविधता पूर्ण अनुष्ठान सम्पन्न किए जाते हैं। बस्तर क्षेत्र में दो आदिम संस्कृतियां समानांतर चलती हैं, जिनमें इस क्षेत्र में निवासरत माड़िया जनजातियों के द्वारा अपने ईष्टदेव अथवा पेन को आंगादेव के रुप में विशेष सम्मान अर्पित किया जाता है तो अन्य जातियों-जनजातियों में जो क्षेत्र में शाक्त परंपरा के संवाहक के रुप में संस्कृति का प्रतिपादन कर रहे हैं, क्षेत्र में विद्यमान देवी मंदिरों, देवगुड़ियों में दीपावली के अवसर पर विशेष विधान सम्पन्न किए जाते हैं। देवी दन्तेश्वरी मंदिर दन्तेवाड़ा में इस अवसर पर होने वाले विधानों का वर्णन निम्नानुसार हैः-
1. तुलसी पानी संस्कार
2. रायगुड़ी बाजा पूजन संस्कार
3. औषधि स्नान संस्कार
तुलसी पानी संस्कार -
देवी दन्तेश्वरी मंदिर दन्तेवाड़ा में कार्तिक मास के कृष्ण प़क्ष की सप्तमी तिथि से त्रयोदशी तिथि तक सप्त दिवसीय विशेष अनुष्ठान का आयोजन किया जाता है, जिसे तुलसी पानी संस्कार कहा जाता है। तुलसी पानी संस्कार हेतु मुख्य सेवादारों में से एक तुड़पा मुख्य पात्र है। देवी दन्तेश्वरी के पूजन विधान में तुडपा ही वह सेवादार है, जिसे जिया विशेष परिस्थिति में अपना उत्तरदायित्व सौंपता है अर्थात जिया के उपरांत देवी दन्तेश्वरी के पूजन हेतु द्वितीय प्राधिकारी तुड़पा ही है। सम्भवतः इसी तुड़पा सेवादार के निवास स्थान को ही तुड़पारास ग्राम का नाम दिया गया होगा, जो जिला मुख्यालय से फरसपाल मार्ग से बायीं ओर पण्डेवार मार्ग पर लगभग 6 किमी की दूरी पर अवस्थित है। तुड़पा के द्वारा प्रातः तीन बजे नारायण मंदिर के पास स्थित माता तालाब से कांवड़ में दो मिट्टी के पात्र में जल लेकर देवी दन्तेश्वरी के मंदिर में लाया जाता है। विधि अनुसार मोहरेया, बजनेया के अलावा मंदिर के एक सेवादार के साथ तुड़पा जल लेने जाता है। कावड़ से जल लेकर तुड़पा देवी मंदिर पहुंचकर एक पात्र देवी दन्तेश्वरी के गर्भगृह में तो दूसरा पात्र देवी भुवनेश्वरी के गर्भगृह में रखता है। मंदिर में उपस्थित अन्य सेवादार राउत के द्वारा धातु के पात्र मे जल लाकर एक-एक पात्र दोनों देवियों के गर्भगृह में रख दिया जाता है। जिया के द्वारा गर्भगृह को बंद कर देवी को गुप्तस्नान करवाया जाता है। तुड़पा के द्वारा भैरव व भैरवयामल तंत्र को स्नान करवाया जाता है, जबकि अन्य देवी देवताओं को राउत सेवादारों के द्वारा स्नान करवाया जाता है।
परिक्रमा आरती -
स्नान के उपरांत जिया के द्वारा विशेष आरती किया जाता है जो अन्य दिनों की आरती से भिन्न होती है। देवी की आरती के अलावा जिया के द्वारा दोनों देवियों के गर्भगृह की परिक्रमा करते हुए आरती की जाती है जिसे परिक्रमा आरती कहा जाता है। जिया के द्वारा प्रत्येक दिशा की ओर मुख कर आरती की जाती है एवं साथ साथ में पड़िहार, तुड़पा, रायगुड़ी वादक, राउत व अन्य सेवादार चलते जाते है। तुड़पा साथ में घी का पात्र लेकर चलता है एवं घी समाप्त होने पर आरती में घी डाला जाता है। इस प्रकार दोनों देवियों के गर्भगृह की परिक्रमा आरती की जाती है। आरती के उपरांत जिया के द्वारा भोग चढ़ाया जाता है, जिस दौरान दोनों मंदिरों के कपाट बंद कर दिए जाते हैं। इस प्रकार एक दिवस का तुलसी पानी संस्कार सफलता पूर्वक समाप्त हो जाता है।
रायगुड़ी बाजा -
देवी के पूजन विधान में शामिल रायगुड़ी बाजा को सम्मान देने के लिए वर्ष में एक बार रायगुड़ी बाजा का पूजन संस्कार किया जाता है। यह संस्कार तुलसी पानी संस्कार के पंचम दिवस को प्रातः भुवनेश्वरी देवी के मंदिर परिसर में किया जाता है। देवी के सेवादार तुड़पा, भण्डारी, राउत आदि के द्वारा पूजन हेतु आवश्यक सामग्रियों की व्यवस्था की जाती है। रायगुड़ी बाजा के धातु अंग से चमड़े को निकालकर उसे धोकर स्वच्छ किया जाता है। मंदिर परिसर में एक कपड़ा बिछाकर उसके उपर चावल फैलाकर रखा जाता है, जिसके उपर रायगुड़ी बाजा के दोनो धातुं अंगो को रखा जाता है। जिया के द्वारा तिलक, अक्षत पुष्प अर्पित करं दीपदान किया जाता है एवं आरती की जाती है। रायगुड़ी बाजा के सम्मान में जिया परिवार के द्वारा वर्ष में एक बार इस संस्कार के समय बकरा अर्पित करने की परंपरा है।
औषधि स्नान संस्कार -
औषधि स्नान संस्कार हेतु बारह लंकवार में से एक कतियार इस संस्कार हेतु निर्वाचित मुख्य पात्र है। देवी दन्तेश्वरी के मुख्य पुजारी जिया के अलावा वर्ष में एक बार दीपावली के दिन देवी को स्नान कराने का अधिकार कतियार को प्राप्त है। सम्भवतः इसी कतियार समुदाय के निवास स्थान को ही कतियाररास ग्राम का नाम दिया गया होगा, जो दन्तेवाड़ा के निकट फरसपाल मार्ग पर स्थित है । दीपावली की पूर्व संध्या को देवी मंदिर में जड़ी बूटी लेने जाने हेतु जिया, लंकवार, सेवादार, मांझी, पटेल, चालकी आदि जमा हो जाते हैं। बारह लंकवार में से दो पात्र पण्डाल एवं बोड़का इस रस्म में कतियार की सहायता करते है। सांय को देवी के गर्भगृह से विशेष वेशभूषा युक्त खड्गधारी कतियार के साथ जिया एंव तुड़पा कपड़े से ढंकी हुई दो टोकरी लेकर बाहर आते है। पड़िहार की अगुवाई में वादक समूह, तराश वाहक व चंवर धावक, लंकवार, मांझी, चालकी आदि जिया एवं तुड़पा के पीछे पीछे मंदिर से बाहर आकर जयस्तम्भ चैक में आकर रुक जाते है। औषधि एकत्रित करने हेतु कतियार के साथ पण्डाल एवं बोड़का मशाल लेकर औष्धि की खोज में निकल पड़ते हैं। सम्भवतः प्राचीन काल में प्रकाश के अभाव में कतियार के साथ रोशनी की व्यवस्था हेतु बोड़का एवं पण्डाल मशाल लेकर चलते थे जो शनैः शनैः एक परंपरा के रुप में ंपरिणीत हो गया होगा। कांस लोटा में माता तालाब से जल एवं छह प्रकार की औषधि के साथ सात प्रकार के अवयव औषधि स्नान हेतु प्रयुक्त होते हैं। राउत सेवादार के द्वारा उक्त जड़ी बूटी को रात भर उबाला जाता है, ताकि दूसरे दिन उससे औषधि स्नान की रस्म पूर्ण की जा सके। दूसरे दिन यानि दीपावली के दिन प्रातः मुख्य पुजारी जिया, भण्डारी, तुड़पा, भोगिहार, पड़िहार, अन्य सेवादार, बारह लंकवार देवी के औषधि स्नान हेतु एकत्र हो जाते हैं। मंदिर के पीछे स्थित भोग कक्ष में कतियार के द्वारा नए चावल से बने हुए आटा को हाण्डी में पकाकर लोई बनाया जाता है। कतियार के द्वारा दो देवी एवं दो भैरव हेतु कुल चार लोईयां बनायी जाती हैं। सर्वप्रथम देवी दन्तेश्वरी मंदिर परिसर में स्थित भैरव प्रतिमा की औषधि स्नान हेतु चांदी पात्र मे ंजड़ी बूटी का अर्क लिए हुए जिया, कांस थाली में पत्ते के दोने में चावल आटे की लोई, सूखा आटा एवं कांस लोटा मे ंपानी लेकर कतियार, राउत की अगुवाई में भैरव के पास जाते हैं। जिया एवं कतियार के द्वारा आम के पत्ते से भैरव को सात बार घी चढ़ाने का विधान पूर्ण किया जाता है। घी चढ़ाने का तरीका स्थानीय जनजातियों के द्वारा विवाह के अवसर पर हरिद्रालेपन संस्कार का ही एक प्रतिरुप माना जा सकता है। तत्पश्चात जिया के द्वारा कपास से घी का लेप पूरी प्रतिमा पर लगाया जाता है। कतियार के द्वारा दोने में रखा हुआ सूखा चावल आटा को पूरी प्रतिमा में छिड़काव किया जाता है। जिया के द्वारा चांदी के पात्र में रखा हुआ जड़ी बूटी अर्क को प्रतिमा के उपर डाला जाता है, जिसे कतियार के द्वारा कांस की थाली में एकत्रित कर कांस के लोटे में रखा जाता है। अंत मे ंजिया के द्वारा भैरव का श्रृंगार कर वस्त्र पहनाया जाता है। यही प्रक्रिया निरंतर चार बार भैरवदेव, देवी दन्तेश्वरी, भैरवदेव एवं rअंत में देवी भुवनेश्वरी के लिए दोहरायी जाती है। जड़ी बूटी स्नान के उपरांत दोनों देवियों के गर्भगृह की परिक्रमा आरती की जाती है व जिया के द्वारा भोग अर्पित किया जाता है। इस प्रकार दीपावली की विशेष पूजा संस्कार सफलतापूर्वक सम्पन्न होती है।
देवी दन्तेश्वरी मंदिर परिसर सिंह द्वार के बाहर स्थित पण्डाल गुड़ी अथवा पांच पाण्डव गुड़ी में पण्डाल पुजारी के द्वारा देवी मंदिर से औषधि अर्क प्राप्त कर देवो ंको स्नान करवाया जाता है। क्षेत्र में दन्तेवाड़ा के पास स्थित बालपेट गांव में विद्यमान गंगनादई माता मंदिर में भी औषधि स्नान का विधान सम्पन्न किया जाता है। गंगनादई माता बालपेट के अधीन 12 गांव आते हैं, जहां माता के पुजारी का दायित्व स्थानीय पेरमा समुदाय के व्यक्ति निभा रहें है।
दीवाड़ पण्डुम -
दक्षिण बस्तर क्षेत्र में माड़िया जनजातियों में आंगादेव का विशेष स्थान है। दियारी तिहार के अवसर पर माड़िया समुदाय के अंतर्गत प्रत्येक थोक अपने ईष्टदेव के सम्मान में दियारी तिहार का विधान सम्पन्न करता है। इस अवसर पर विभिन्न ग्रामों में बसे हुए एक कुटुम्ब अथवा परिवार के सदस्य मुख्य पित्रदेव के स्थान पर जमा होकर अपने ईष्ट को नई फसल के रुप में धान, सेमी, कुम्हड़ा आदि अर्पित करते हैं, जिसे स्थानीय गोंडी भाषा में दीवाड़ पण्डुम कहा जाता है। दन्तेवाड़ा क्षेत्र के सबसे बड़े आंगादेव हुसेण्डी देव अथवा उसेन मुईतोर घोटपाल के सम्मान में राजा दीवाली के तुरंत बाद पड़ने वाले बुधवार को बिंजाम में हुंगावेलादेव के यहां विशेष दीवाली तिहार के बाद लेकामी परिवार के द्वारा दीवाड़ पण्डुम सम्पन्न किया जाता है, जिसके उपरांत अन्य आंगादेवों के यहा ंदीवाड़ पण्डुम का विधान सम्पन्न होता है।, फरसपाल में गुज्जे डोकरी, कमालूर में माड़काराज देव, भंासी में हुरुमारा देव, मंगनार में भीमाराज देव, रंेगानार में दारामाड़का देव, श्यामगिरि में कुंदेलगंगो, कासोली में बोम्मिलुंगा, तुमनार में जुंगादेव, बारसूर के बाराभूजा देव, कटुलनार हीरे डोकरी, चोलनार हांदाल कोसाल आदि देव गुड़ियों में दीवाड़ पण्डुम सम्पन्न किया जाता है। इस अवसर पर आंगादेव के विशेष कुटुम्ब के लोग एकत्रित हो अपने ईष्टदेव को स्नान करवा कर नयी फसल के रुप में चावल, कद्दू, सेमी, आदि अर्पित करते हैं। इसके अलावा बलि प्रसाद के रुप में मुर्गा एवं वराह का भी तर्पण किया जाता है। दन्तेवाड़ा क्षेत्र में विद्यमान प्रत्येक आंगादेव को स्नान करवाया जाता है किंतु भांसी के हुरुमारा देव अपवाद हैं, जिन्हे ंस्नान नहीं करवाया जाता है, जिनका फागुन मण्डई के पहले विशेष विधान के तहत स्नान संस्कार पूर्ण किया जाता है। चितालंका क्षेत्र में पाटराजा एवं कामाराज देव के सम्मान में अगहन माह में दियारी तिहार सम्पन्न किया जाता है। इस अवसर पर देवता को नया चावल, नए चावल से बनी हुई रोटी, प्रसाद के रुप में ंनारियल के अतिरिक्त मुर्गा, बतख, वराह एवं बकरा तर्पण करने का विधान है। चितालंका क्षेत्र के पेरमा समुदाय पुजारी एवं राउत सेवादार की भूमिका का निर्वहन करते हैं। मंगनार गांव में मंगलवार के दिन पाण्ड जातरा के रुप मे ंपेरमा समुदाय के द्वारा शीतला देवगुड़ी में दियारी तिहार का आयोजन किया जाता है। दन्तेवाड़ा व गीदम की शीतला माता, मैलावाड़ा व गुमलनार की गंगनादई माता, नेलसनार की पोलाईन माता, कटेकल्याण की दन्तेश्वरी माता, छिन्दनार की मावली माता, तुमनार शीतला माता, कोडोली की कोदई माता का दीवाली में विशेष पूजन किया जाता है। बारसूर स्थित सोनादई माता एवं देवी दन्तेश्वरी मंदिर में भी पूजन विधान उपरांत पेदम्मा गुड़ी में दीपावली को एक दिवसीय वार्षिक समारोह का आयोजन किया जाता है, जिसमें बकरा की बलि दी जाती है। कुआकोण्डा क्षेत्र में दियारी तिहार के अवसर पर क्षेत्र के 84 ग्रामों के अधिपति कोण्डराजदेव, डोंगर देव एवं लच्छनदई माता मंदिर में नया चावल अर्पित किया जाता है। इस हेतु शनिवार, सोमवार, मंगलवार अथवा शुक्रवार का दिन चयनित किया जाता है।
Dantewada Tourism, Dakshin Bastar Dantewada