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Upadhyaksh Koya Kutumbh Samaj , Bastar Sambhag

शहीद रोड्डा पेद्दा दादो

जीवन परिचय (जन्म :02-05-1854,मृत्यु :07-11-1910)

कवासी रोडापेड़ा का जन्म 02 मई सन् 1854 को गढ़या नामक गांव में हुआ था। गढ़या आगे चलकर गढ़मिरी के नाम से जाना जाता है जो कि चौरासी गांव परगना कुआकोण्डा (मूल नाम पालोट) का मुंडी गांव के नाम से जाना जाता है। इनके पिता का नाम कवासी गंगा एवं माता का नाम हिड़मे है। माड़िया जनजाति के किसान परिवार से थे। | बुजुगों के अनुसार कवासी रोडापेद्दा के पूरवज गढ़या (लोहडीगुड़ा) से आ कर बसे थे। इसलिए इस गाँव नाम गड़या कालांतर में गढ़मिरी के नाम से परिवर्तित हो गया है, जो कि जनपद पंचायत कुआकोंढा (पालोट) जिला दंतेवाड़ा छत्तीसगढ़ में है।

कवासी गंगा के चार पुत्र थे। चारों में से सबसे बड़े थे। चार भाईयों में रोडा, रिसाम, गोटामी और विज्जा। इनके परिवार में घोड़े भी पाले थे। कवासी रोडा बाए हाथ का प्रयोग किया करते थे। इसलिए रोडा कहलाया। बचपन से वाचाल थे। और कुषाग्र बुद्धि के थे, षिक्षा व्यवस्था नहीं होने बाद भी समझदारी से काम करते थे। रियासत कालीन बस्तर में कुआकोस (पालोट) में अंग्रेजों के विरुद्ध गुडाचूर के नेतृत्व में बैठकें होती थी आंदोलन की रूप रेखा तय किया जाता था। कवासी रोडा इस आंदोलन से जुड़ गए, और आगे चलकर परगना माझी के रूप में इस क्षेत्र का "नेतृत्व समहाला। घुडसवारी मे भी दक्ष थे। जल जंगल जमीन की रक्षा के लिए भूमकाल आंदोलन में जुड़ने के कारण धनीकरका गाव का आश्रित ग्राम नड़ियापदर के निवासी तेलगा जाति लोगों को कुआकोडा (पालोट) के गढ़पदर में बसाया । और लक्षन दई माता, डोंगोर दई माता और कोंडराज बाबा का पुजारी काम सोपे। इसलिए आज भी इन देव गुड़ियों में गढ़या(गढ़मिरी के निवासियों का अहम भूमिका होती है।


बस्तर के जन जातीय समाजों में ऐसे कई नायक पैदा हुए हैं। जिन्होने अपने वीरता और अद्भुत नेतृत्व क्षमता के बल पर आदिवसियों को संगठित कर स्वतंत्रता के लिए स्वयं का बलिदान कर दिया है। इतिहास के पन्नों में आज ऐसे अमर बलिदानी कहीं विस्मृत हो चुके है। ज्यों ज्यों बस्तर के जनजातीय अस्मिता के पत्रों को हम पलटते जाते है तो ऐसे भुला दिए गए वीरों की गाथाएं रह रहकर आंखों के सामने सजीव होने लगती है। बस्तर की इतिहास में आदिवासियों के ऐसे अनेक विद्रोह षोशण बेगारी कुव्यवस्था और आजादी से जुड़ी ज्वलंत मुद्दों को लेकर हुए है। इन क्रांतियों के पीछे बस्तर के अनेक इलाकों के मुख्य लोगों ने भाग लिया और अपने समाज और क्षेत्र की बेहतरी के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी।

1774 ईस्वी में हलबा विद्रोह से लेकर 1910 के महान भूमकाल आदोलन में आदिवासियों ने अपने कुषल नेतृत्व और संगठन क्षमता के बल पर अपनी विजय का डंका बजाया है। 1774 ई. से अंग्रेज बस्तर में लगातार पैर जमाने की कोषिष कर रहे थे। बीसवी सदी आते तक वे बस्तर के सार्वभौम बन चुके थे। इन दो सौ साल में बस्तर के आदिवासी ने अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध कई बार विद्रोह का झंडा बुलंद किया और हर बार विद्रोहियों का दमन किया गया। 1910 का महान भूमकाल आदोलन वरतर के इतिहास में सबसे प्रभावषाली आदोलन था। इस विद्रोह ने बस्तर में अंग्रेजी सरकार की नींव हिला दी थी। पूर्ववती राजाओं के नीतियों के कारण बस्तर अंग्रेजों का औपनिवेषिक राज्य बन गया था। बस्तर की भेली भाली जनता पर अंग्रेजो का दमनकारी षासन चरम पर था। दो सौ साल से विद्रोह की चिंगारी भूमकाल के रूप में विस्फोट हो गई थी। भूमकाल आंदोलन के पीछे बहुत से कारणों की लंबी शृंखला है। आदिवासी संगठित होकर अंग्रेजी सत्ता को बस्तर से उखाड़ फेककर मुरियाराज की स्थापना के लिये मरने मारने पर उतारू हो गये थे। बस्तर के आदिवासियों के देवी दतेष्वरी के प्रति आस्था में अंग्रेजी सरकार का अनावश्यक हस्तक्षेप बढ़ गया था अंग्रेजी सरकार द्वारा नियुक्त दीवानों की मनमानी अपने चरम पर थी। वनों की अंधाधुंध कटाई कर आदिवासियों को उनके जल जंगल जमीन से वंचित किया जा रहा था आदिवासियों और राजा रूद्रप्रताप में आपसी विश्वास एवं समन्वय की कमी और राजपरिवार के अन्य सदस्य लाल कालिन्दसिंह और राजा की सौतेली मां सुवर्णकुंवर देवी के अंग्रेजी और राजा के प्राति पका ने उन्होने विद्रोह का झंडा बुलंद कने के लिये विवष किया। साहब लाल कालिन्द सिंह जो राजा के चाचा थे, उन्होंने आदिवासियों के अंदर विद्रोह की ज्वाला को पहचान कर उन्हें दिषा देने का कार्य किया। मध्य बस्तर और सुकमा जिले में आदिवासियों की एक अन्य जनजाति चुरवा आदिवासियों की बाहुल्यता है। धुरवा आदिवासी राजपरिवार के निकट थी और अंग्रेजो के षासन में सर्वाधिक घोशित जनजाति थी लाल साहब ने तानार के विद्रोही नेता गुडार को आदिवासियों का नेता बनाकर विद्रोह की रूपरेखा तय की। राजमाता सुवर्णकुंवर देवी ने भी लाल साहब और गुडाचूर के साथ मिलकर विद्रहियों को नेतृत्व प्रदान किया।

गुडाथूर के साथ बस्तर के प्रत्येक परगने से आदिवासियों एवं अन्य समाजों के मांझी मुखियों ने भी भूमकाल आंदोलन में भाग लिया। दंतेवाड़ा जिले के गढ़मिरी परगने के मुखिया रोड़ा पेद्दा ने भी भाग लिया। पेद्दा गोंडी में मुखिया षब्द के लिए प्रयोग होता है। मूलत यह द्रविड़ षब्द है। दक्षिण भारत के इतिहास में मुखिया के लिए पेद्दा षब्द का उपयोग मिलता है।

रोड़ा पेड़ा मुरिया जनजाति का था जिसके पिता का नाम गंगा था। अक्टूबर 1909 में दुषहरे के दिन अंतागढ़ के ताडोकी में लाल कालेंद्र सिंह, रानी सुबरन कुंवर ने हजारों की संख्या में आदिवासियों को संबोधित किया और अंग्रेजी सरकार को उखाड़ फेंकने का आव्हान किया। इस सभा में गुडाचूर को प्रमुख नायक चुना गया और प्रत्येक परगने से एक एक व्यक्ति को विद्रोह को संचालित करने के लिए नामजद किया गया जिसमें बारसूर में कोरिया माझी और जकरा पेद्दा, दतेवाड़ा में डिंडा पेद्दा और कुराटी मासा, गढ़मिरी कुआकोंडा में रोड़ा पेद्दा को नेता बनाया गया। जनवरी 1910 में ताड़ोकी में पुनः गुप्त सम्मेलन आयोजित हुआ यहां सभी आदिवासी नेता एकत्रित हुए लाल कातेंद्र सिंह ने आदिवासियों को एक कटार भेंट की। यह कटार महान भुमकाल के समर्थन की प्रतीकात्मक वचनबद्धता थी। यह कटार एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में गुजरती गई और इसके गुजरने का अर्थ था कि आदिवासियों के पल उठा लेने का आव्हान 1 फरवरी 1910 को समूचे बस्तर में भूचाल आ गया। उस दिन बहुत अधिक लूट मार और आगजनी हुई। 7 फरवरी 1910 में गोदम में एक गुप्त सभा आयोजित हुई। इसमें सारे विद्वाही नेता सम्मिलित हुए। उस दिन यह खबर थी कि दीवान बैज नाथ पड़ा गीदम में थे किंतु दीवान को गीदम में ना पाकर आदिवासियों के क्रोध का ठिकाना नहीं रहा और जिस पेड़ में दीवान का हाथी बधा था, उस पेड़ को आदिवासियों ने काट डाला।
 

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