By Shri Kamal Kishor Rawat
बारसूर बस्तर ही नहीं वरन छत्तीसगढ़ का सबसे मुख्य पुरातात्विक स्थल है। दंतेवाड़ा जिले में इंद्रावती नदी के तट पर बसा बारसूर इतिहास पुरातत्व, प्राकृतिक सौंदर्य और संस्कृति का अनूठा संगम है। यहां के कण कण में बस्तर के अनजाने इतिहास की गाथाएं मौजूद है जिन्हे कभी सुना ही नहीं गया, कभी कहा ही नहीं गया। यहां के लोक में पौराणिक किरदार बाणासुर और उसकी शिव भक्ति की बाते सुनने को मिलती है।
यहां के प्राचीन मंदिरों में बस्तर की कला स्थापत्य के नए प्रतिमानों के साथ गढ़ा गया है। सुनहरे अतीत के वैभव को समेटे हुए इन मंदिरों ने बारसूर को बस्तर का राजसी मुकुट के रूप में सुशोभित किया है।
बारसूर में 147 मंदिरों और इतने ही तालाबों की संकल्पना केदारनाथ ठाकुर ने कभी अपने पुस्तक बस्तर भूषण में की थी। किंतु आज भी शेष बचे कुछ मंदिर और उनका आकर्षण सैलानियों को बारसूर खींच ही लाता है। दंतेवाड़ा में मां दंतेश्वरी के दर्शन उपरांत घने वनों में दौड़ती सड़क से दूरी तय कर जब पर्यटक बारसूर पहुंचते हैं तो, एक साथ तरह तरह के पूराने मन्दिरों को देख कर उनकी खुशी का ठिकाना ही नहीं रहता है, शोधार्थियो को तो मानों इतिहास पुरातत्व का खजाना ही मिल गया ऐसा भाव प्रकट होते रहता है।
बारसूर नगर में प्रवेश करते ही सर्वप्रथम बत्तीसा मंदिर के दर्शन होते हैं। बत्तीस पाषाण स्तंभों पर आधारित यह भव्य युगल देवालय भगवन शिव को समर्पित है। बत्तीस खंबो ने ही इसे बत्तीसा मंदिर जैसा अनूठा नाम दिया। ऊंची जगती पर दो गर्भगृह और एक विशाल संयुक्त मंडप युक्त यह मंदिर इस द्रविड़ शैली में निर्मित एक मात्र मंदिर है। मंडप में नंदी की अलंकृत दो एकाश्मक प्रतिमाएं रखी हुई है। गर्भगृह में त्रिरथ शैली में निर्मित शिवलिंग प्रतिष्ठापित है जो चारो दिशाओं के घूमते हैं। शिवलिंग की ऐसी विशेषता आम तौर पर दुर्लभ होती है। मंदिर का अभिलेख इसके इतिहास के अनसुने रहस्यों का उद्घाटित करती है। 1209—10 ईस्वी में बस्तर तदयुगीन चक्रकोट के नागवंशी राज्य की राजमहिषी गंगा महादेवी ने यह मंदिर बनवाया था जिसमें एक शिवालय अपने पति महाराजा जगदेकभूषण सोमेश्वर देव के नाम पर सोमेश्वरा और दूसरा स्वयं के नाम पर गंगाधरेश्वरा शिवालय निर्मित करवाया था। यह जीवंत देवालय विगत आठ सौ साल से क्षेत्र की आस्था और भक्ति का केंद्र है।
बत्तीसा मंदिर से आगे का मार्ग गणेश मंदिर की ओर जाता है। एक विशाल मंदिर परिसर में कभी शिव जी का विशाल मंदिर और अन्य देवताओं को समर्पित चार इस प्रकार पांच मंदिर हुआ करते थे। भयंकर आक्रमणों ने इन मंदिरों को जमींदोज कर दिया जिसके आज मात्र अवशेष ही शेष रह गए हैं। इस परिसर में गणेश जी की दक्षिण मुखी दो विशाल प्रतिमाएं स्थापित है। एक ही चट्टानों को तराशकर निर्मित की गई ये गणेश प्रतिमाएं बस्तर की सबसे विशाल प्रतिमा गणेश मूर्तियां हैं। बाईं तरफ़ की प्रतिमा लगभग सात फीट और दाईं तरफ़ की प्रतिमा लगभग पांच फीट ऊंचाई की है। ग्यारहवी सदी में निर्मित यह प्रतिमाएं नागवंशी राजाओं द्वारा गणेश पूजन और उनकी प्रतिमाओं को कोने कोने में स्थापित किए जाने के इतिहास का स्मरण कराती है।गणेश चतुर्थी में इन गणेश प्रतिमाओं के दर्शन हेतू यहां जन समूह का तांता लगा रहता है।
गणेश मंदिर परिसर से सामने सीधी सड़क मामा भांजा मंदिर की ओर ले जाती है। सास बहू, देवरानी जेठानी, गुरु चेला जैसी जोड़ी पर आधारित और वैसे ही रिश्ते में निर्मित यह मामा भांजा मंदिर बारसूर का सबसे मुख्य मंदिर है। शिव को समर्पित रहे इस मंदिर के गर्भगृह में वर्तमान में गणेश और नरसिंह की प्रतिमाएं स्थापित है। नागर शैली में निर्मित यह देवालय मामा भांजा की किंवदंती को बखान करता है। बस्तर भूषण में केदारनाथ ठाकुर ने इस किंवदंती का रोचक वर्णन किया है। उनके अनुसार उत्कल देश के गंग राजा की छः संताने थी एवं एक संतान दासी से उत्पन्न हुयी थी। राजा की दासी ने राजा को वश मेें कर अपने पुत्र को राजा बनवा दिया। राजा की अन्य संतानों को राज्य से बाहर खदेड़ दिया। वे सभी छः भाईयों ने तत्कालीन चक्रकोट में आकर बालसूर्य नगर आज के बारसूर की स्थापना की। बालसूर्य नगर की स्थापना के बाद गंग राजाओं ने कई कारीगरों को बुलाकर इस नगरी में कई मंदिर बनवाये।कई तालाब भी खुदवाये। गंग राजा का भांजा बहुत ही बुद्धिमान था। भांजे ने उत्कल देश से कारीगरों को बुलवा कर मंदिर बनवाया। मंदिर की उच्च कोटी की बनावट और सुंदरता को देखकर गंग राजा के मन में जलन की भावना उत्पन्न हो गयी। राजा में मंदिर पर अपना अधिकार स्थापित करने की कोशिश की जिसके फलस्वरूप मामा और भांजे में युद्ध हुआ । युद्ध में भांजे की जीत हुयी , गंग राजा को जान से हाथ धोना पड़ा। बाद में भांजे ने मामा के मुख की मूर्ति बनवा कर मंदिर के सामने लगा दी और स्वयं की मूर्ति मंदिर के अंदर स्थापित करवायी। हालांकि यह सिर्फ एक किंवदंती है। इस किंवदंती ने ही मंदिर को मामा भांजा जैसा अदभुत नाम दिया। इतिहास में कभी ऐसी घटनाएं तत्कालीन राजपरिवार में घटित हुई होगी जिसका स्वरूप बदलते बदलते आज इस किंवदंती के रूप में लोगों में प्रचलित है। ग्यारहवी सदी के मध्य में निर्मित यह मंदिर बारसूर के अतीत की गौरव गाथाओं को संजोये हुये शान से खड़ा है।
मामा भांजा मंदिर के बाद एक अन्य मुख्य मंदिर पूराने बाज़ार परिसर में तालाब के किनारे चंद्रादित्य मंदिर है। इस मंदिर का शिखर वर्तमान में टूट चुका है। गर्भगृह अंतराल और मंडप में विभक्त यह मंदिर नागयुगीन प्रतिमाओं से शोभित है। मंदिर के मंडोवर पर अष्ट दिकपाल, शैव, वैष्णव, शाक्त तथा तत्कालीन जन जीवन को दर्शाती प्रतिमाओं का अनूठा संगम है। यहां शिव, पार्वती, चामुंडा, गणेश, विष्णु, सूर्य, कार्तिकेय, नरसिंह, अष्ट दिकपाल, शिकार, व्याल आदि की दुर्लभ प्रतिमा है। गर्भगृह में शिवलिंग प्रतिष्ठापित है। मंडप में नंदी की प्रतिमा है जो क्षरित हो चुकी है। इस मंदिर के अभिलेख अनुसार 1060 ईस्वी में चक्रकोट के छिंदक नागवंशी राजा जगदेक भूषण के सामंत चन्द्रादित्य ने यह देवालय और तालाब निर्मित करवाया था। यह मंदिर चक्रकोट की दुर्लभ मूर्तिकला का सबसे महत्वपूर्ण स्थल है।
इन मन्दिरों के अतिरिक्त बारसूर में ही पेदम्मा गुड़ी, सोलह खंबा, गनमनतराई का देवालय, हिरमराज, और कमल भाटा का सूर्य मंदिर है। ये सारे मंदिर आंशिक और पूर्ण रूप से ध्वस्त होने की कगार पर है। पेदम्मा गुड़ी गणेश मंदिर परिसर के पीछे की तरफ है। मूल रूप से देवी को समर्पित यह मंदिर द्रविड़ शैली में निर्मित है। मंदिर गर्भगृह अंतराल और मंडप में विभक्त है। इसका शिखर और मंडप नष्ट हो चुका है। इसे बचाने के लिए मंदिर के ऊपर टीन शेड निर्माण किया गया है। यह मंदिर तेरहवीं सदी में निर्मित है। सोलह खंबा मंदिर मामा भांजा मंदिर के पीछे तालाब के तट पर स्थित है। बत्तीसा मंदिर की तरह ही इस मंदिर का मंडप सोलह खंबे पर आधारित है। मूल रूप से देवी को समर्पित इस मंदिर में कालांतर में शिवलिंग स्थापित किया गया है। मलबा सफाई के उपरांत इस मंदिर का स्वरूप सामने आया है। इसके जीर्णोद्धार उपरांत यह मंदिर भी बत्तीसा मंदिर की तरह बारसूर का मुख्य ऐतिहासिक मंदिर साबित होगा। यह मंदिर भी बत्तीसा मंदिर के साथ साथ ही तेरहवीं सदी में निर्मित अनुमानित है। गणेश मंदिर के पास ही एक तालाब है जिसे गनमन तराई कहा जाता है। इस तालाब के मध्य में एक शिवालय है जो बारसूर की जलालय में शिवालय की संकल्पना को प्रदर्शित करता है। यह मंदिर समय की मार नही झेल पाया जिसके कारण इसकी दीवार तालाब में गिर चुकी है। इसके जीर्णोद्धार उपरांत निश्चित ही यह बारसूर का सर्वाधिक आकर्षण का केंद्र रहेगा। बारसूर से सातधार नारायणपुर जाने वाले मार्ग में कमलभाटा में पुरी तरह से ध्वस्त मंदिर है जो सूर्य को समर्पित माना जाता है। इसे तमान गुड़ी कहा जाता है। यहां सूर्य की दुर्लभ प्रतिमा ध्वस्त मंदिर से बाहर रखी हुई है। हिरमराज का मंदिर बारसूर नगर में दंतेवाड़ा से प्रवेश करने वाले मार्ग में मंगलपोट में है। एक पहाड़ी पर स्थित यह लघु देवालय बाबा हिरम राज का देवालय है। हिरमराज बारसूर नगर के रक्षक है जो पहाड़ी पर निवास कर क्षेत्र की रक्षा करते हैं। इनकी प्रतिमा पहाड़ी से नीचे स्थापित है। पास ही एक छोटी गुफा है। एक चट्टान पर कबूतरों के रहने के लिए एक चौकोर पत्थर में गोलाकार संरचना बनी हुई है।
बारसूर जिला मुख्यालय दंतेवाड़ा से 32 किलोमीटर, गीदम से बीस किलोमीटर की दूरी पर है। बारसूर से एक मार्ग नारायणपुर और एक मार्ग चित्रकोट झरने की तरफ़ जाता है। बारसूर के पास ही इंद्रावती पर बना सातधार जैसा खूबसूरत झरना है। शीतकाल में यहां बहती रजत धाराओं का सौंदर्य मंत्रमुग्ध कर देता है। बारसूर से ही होकर इंद्रावती नदी को पार कर अबुझमाड़ में प्रवेश किया जा सकता है। बारसूर में प्रत्येक शुक्रवार को लगने वाले हाट में अबूझमाड़िया जनजाति की देखा जा सकता है। यहां अबूझमाड़ में तुलार और हांदावाड़ा जैसे चर्चित पर्यटन स्थल है, बारसूर होकर यहां आसानी से पहुंचा जा सकता है।
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