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Dantewada Tourism

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Dr. Shikha Sarkar

HOD ( Dept. Of History)

दन्तेवाड़ा जिले का ऐतिहासिक परिदृष्य

छत्तीसगढ राज्य के निर्माण के बाद से छत्तीसगढी चेतना के स्वर का जागृत होना स्वाभाविक ही था, क्यांकि पृथक राज्य के रूप में अस्तित्वमान होने के कारण इस राज्य के लोगों में अपनी अस्मिता अपनी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं पुरातात्विक चेतना के प्रति आकर्षण तथा विष्व मानचित्र पर अपनी विरासत से दुनिया को पहचान कराने की ललक पैदा हुई, इसी दिषा में दन्तेवाड़ा जिले के परिपेक्ष्य में दन्तेवाड़ा के ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक महत्व की पहचान के खोज की कड़ी में यह मेरा प्रयास है।

दन्तेवाडा जिला पुराने बस्तर जिले को विभाजित कर उस के दक्षिणी भू-भाग के रूप अस्तित्व में आया। अपनी सांस्कृतिक, पुरातात्विक तथा भौगोलिक विषिष्टताओं के कारण यहां जिला सभी के लिए आकर्षण का केन्द्र है। इतिहास के संदर्भ में बस्तर को देखें तो इस की प्रसिध्दि प्राचान काल से ही है। इस विषाल और विस्तृत वनाच्छादित भू-भाग को महर्षि वाल्मिकी अपने कालाजयी महाकाव्य रामायण में दण्डकवन और दण्डकारण्य कहा है। महाभारत काल एवं गुप्त युग में यह आरण्यक अंचल अपने विषाल सघन, मनोरम, वनों के कारण महाकान्तार नाम से जाना जाता था, तब बस्तर एक आटविक राज्य था, संस्कृत में आरबी शब्द का अर्थ है, जंगल। अपनी अकूट वन-सम्पदा के कारण बस्तर एक आरविक राज्य था एक अन्य (पौराणिक) संदर्भ के अनुसार बस्तर का विषाल भू-भाग भाग जो गोगदावरी तट पर्यन्त फैला है, प्राचीन दण्डक वन है, हरिवंष पुराण के अनुसार वैवस्वत मनु के नौ परम प्रतापी पुत्र थे। ज्येष्ठ पुत्र का नाम इस्वाकु था, इस्वाकु के एक पुत्र का नाम दण्डक था, दण्डक ने बस्तर में अपना  राज्य स्थापित किया दण्डक के नाम से ही बस्तर के इस विस्तृत वनाच्छदित भू-भाग का नाम (दण्डकारण्य) पडा़ दण्डकराज्य अत्यन्त समृध्द था, किन्तु शुक्राचार्य के श्राप के कारण दण्डक का राज्य भस्मीभूत हा गया और जंगल में परिवर्तित हो गया, यह मूलतः एक अदिवासी अंचल है। प्रकृति 

की विषाल सम्पति के स्वामी होने के बावजूद यहॉ के अदिवासी आज भी निराक्षर तथा निर्वसन जीवन यापन कर रहे है। अज्ञानता के कारण ठगे गए है। इनके इतिहास को दफना दिया गया है, इसलिए ग्रिग्सन (1938) में इसे भारतीय इतिहास का बैकवाटर कहा था। इस काल की कोई खास जानकारी तथा पुरातात्विक अवषेष प्राप्त न होने के कारण बस्तर तथा इसके अन्तर्गत आने वाले दन्तेवाड़ा क्षेत्र के बारे में कोई अन्य जानकारी हमें नहीं मिलती है।

दन्तेवाडा के ऐतिहासिक महत्व की पहली जानकारी नलयुग में मिलती है, जिनका शासन काल 400 ई. सन् के आस-पास है तथा इन्ही के समय बस्तर में मूर्तिकला के निर्माण के कार्य के संकेत हमें मिलती है। जगन्नाथ पुरी के गंगवंषी राजा के एक पुत्र ने बारसुर में अपनी राजधानी स्थापित की कुछ दिनों के लिए वे अपनी राजधानी दन्तेवाडा भी ले आए। इसका सबसे प्रथम राजा इन्द्रवर्मन को कहा जाता है, जिसका शासन 498 ई. के आसपास से प्रारंम्भ होता है। इतिहास कारों का ऐसा मानना है कि बालसूय के नाम पर बारसूर नाम प्रसिध्द हुआ होगा। इस गंगवंषी राजा ने बारसूर में अनेक मंदिरों एवं तालाबो का निर्माण कराया तथा दन्तेवाडा में इन्होने (दन्तेष्वरी) का मंदिर भी बनवाया था। गंगालूर नामक गांव इस क्षेत्र में गंगवंषी राज्य के प्रमाण की पुष्टि करता है। दन्तेवाडा मंदिर में स्थापित गरूड़ स्तंम्भ पेदम्मागुड़ी की दुर्गा मूर्ति (दन्तेष्वरी) तथा मणिकेषरी की कलात्मक मूर्तियॉ गंगवंष के मूर्तिकला के इतिहास को दर्षाता है। दन्तेवाड़ा जिले के बारसूर नामक स्थान को नागवंषी नरेषों के द्वारा अपनी प्रथम राजधानी बनने का सुअवसर मिला तथा 1023 में नृपतिभूषण नामक नरेष ने इसे अपनी राजधानी बनाई। छिन्दक नाग राजा का 1023 ई. में प्राप्त षिलालेख एर्राकोट से मिला है जिस में नृपति भूषण तथा क्षितिभूषण का नाम उल्लेख है।

दन्तेवाडा में प्राप्त 1224 ई. के स्तंभलेख में राजभूषण का उल्लेख मिलता है, राजभूषण एक प्रतापी नरेष या राजा की संतान नहीं थी। राजभूषण के मृत्यु के उपरांत चक्रकोट की जनता ने राजा की बहन मासक देवी को रानी बनाया चक्रकोट में अव्यवस्था व्याप्त थी। प्रजा और राजा के मध्य में संबंध होने चाहिए 

वे नहीं रहे, भ्रष्टाचार अपनी चरमसीमा पर था, धर्म का नाष हो रहा था। चक्रकोट की इन्ही परिस्थितियों में मासक देवी रानी बनी थी। मासक देवी में सुन्दरता के साथ ही अद्भूत साहस और प्रबल इच्छा शक्ति थी। बस्तर के   राजवंषो के साथ दंतेवाड़ा जिले में स्थापित विभिन्न जमींदारि की चर्चा भी यह अपेक्षित होगी।

दंतेवाड़ा जिले के सूदूर दक्षिण में भेजी राज्य था, जिसके जमींदार कोरकोण्ड वंष के थे। पं.केदारनाथ ठाकुर के विवरण अनुसार यह छः भागों में विभाजित था, जिस पर इस वंष के छः पुत्र शासन करते थें-भेजी, चिन्तलनार, कोतापाल, सुकमा, रेकापल्ली तथा कोत्तगुडम। यहॉ के राजवंषी तथा दन्तेवाडा के इतिहास की परतें खुलनी अभी शेष है तथा यदि यहॉ के दृष्य स्थलों के अतिरिक्त पुरातात्विक स्थलों की खुदाई की जायेगी तो यहॉ के इतिहास की जानकारी हमें पूर्ण रूप से प्राप्त होगी । इसी सन्दर्भ में टीम आगामी दिनों में जिस के पुरातात्त्विक के महत्व के अनेक स्थलों का भ्रमण करेगी, जिसमें अनेक महत्वपूर्ण जानकारियां हमें प्राप्त होगी।

संदर्भ :-

  1. लाला जगदलपुरी, बस्तर इतिहास और सस्कृति।  
  2. मदनलाल गुप्ता, छत्तीसगढ़ दिग्दर्षिका।
  3. हीरालाल शुक्ल, बस्तर का मुक्ति संग्राम।
  4. केदारनाथ ठाकुर, बस्तर भूषण।
  5. डॉ. रामकुमार बेहार, मध्यप्रदेष का पुरातत्व (संदर्भ ग्रन्थ)
  6. डॉ. रामकुमार बेहार, बस्तर एक अध्य तत्व - 1995 ई.। 
  7. डिब्रेष - छत्तीसगढ़ फयूडेटरी स्टेटस गयेरियर (1904) बस्तर भूषण (1908)।

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